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Wednesday, December 29, 2010

2010: उलट दिए प्रकृति के नियम


2010 की सबसे बड़ी उपलब्धि के रुप में वैज्ञानिकों ने एक क्लिक करेंकृत्रिम कोशिका बना कर जीव विज्ञान के क्षेत्र में तहलका मचा दिया. इस कोशिका का डीएनए पूरी तरह कृत्रिम था.
माना जा रहा है कि अमरीकी अनुसंधानकर्ताओं की यह कामयाबी कृत्रिम जीवन बनाने की दिशा में एक पहल साबित होगी.
लंदन के वैज्ञानिकों ने भी एक कृत्रिम रक्त नली (रक्त धमनी) बनाने में सफलता हासिल की. बढ़ती उम्र के चलते, बाईपास सर्जरी के लिए जिन लोगों के शरीर से स्वस्थ रक्त नली मिलना मुश्किल है, उनके लिए ये कृत्रिम नली वरदान साबित होगी.
इस साल ऑक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि हर दिन संतुलित मात्रा में क्लिक करेंएस्प्रिन का सेवन हर तरह के कैंसर से बचाव करता है. हर दिन एस्प्रिन लेने वाले मरीज़ों में कैंसर से मौत का ख़तरा 25 फीसदी तक कम हो गया.
इस बीच अमरीका के डॉक्टरों ने प्रयोगशाला से एक कदम आगे मरीज़ों के शरीर पर क्लिक करेंस्टेम कोशिकाओं के प्रयोग शुरु किए.
स्टेम कोशिकाओं की ख़ासियत है कि वो शरीर में मौजूद किसी भी कोशिका का रुप ले सकती हैं.
अगर ये प्रयोग सफल रहे तो कोशिकाओं के मृत होने से जुड़ी बीमारियों के इलाज और उन्हें बदलने में स्टेम कोशिकाएं चमत्कारी रुप से काम करेंगी.
कनाडा के मैक्मास्टर विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने त्वचा की कोशिकाओं से रक्त बनाने का कारनामा भी कर दिखाया. त्वचा के तीन से चार सेंटिमीटर के हिस्से से एक वयस्क की ज़रूरत लायक खून बनाया जा सकता है

आईटी में भारत कैसे बना अव्वल


इन्फॉ़र्मेशन टेक्नोलॉजी, या आईटी, या सूचना प्रौद्योगिकी के संसार का एक जाना-माना ब्रांड है – भारत.

आईटी पेशेवरों की संख्या के हिसाब से दुनिया में भारत दूसरे नंबर पर आता है. भारत से अधिक आईटी पेशेवर केवल अमरीका में हैं.

साथ ही भारत इंजीनियरों की संख्या के हिसाब से दुनिया में पहले नंबर पर आता है. भारत में हर साल पाँच-साढ़े पाँच लाख इंजीनियर बन रहे हैं.

और दूसरी शाखाओं के भी बहुत सारे इंजीनियर आईटी के बढ़ते प्रभाव और बढ़ती माँग को देखते हुए आईटी क्षेत्र से जुड़ते जा रहे हैं और वो भी भारत के आईटी पेशेवरों की फौज का हिस्सा बनते जा रहे हैं.

आईटी क्षेत्र में भारतीय इंजीनियरों के दबदबे का आलम ये है कि आज जहाँ भारत के आईटी पेशेवर दुनिया के कोने-कोने में नज़र आते हैं, वहीं दुनिया के कोने-कोने से लोग आईटी सेवाओं के लिए भारतीय कंपनियों से आस लगाए रहते हैं.

मगर क्यों है भारत आईटी क्षेत्र में अव्वल? सिर्फ़ संयोग ने सफलता दिलाई भारत को या भारतीयों ने सचमुच कुछ ख़ास परिश्रम और प्रयास करके ये नाम और मुक़ाम अर्जित किया है?

कारण कई हैं, कारक कई हैं – भारतीय पेशेवर इंजीनियरों की सफलता की इस यात्रा में कुछ रास्तों को बनाना पड़ा, तो कहीं कुछ राहें ख़ुद निकलती चली गईं.


शुरूआत


भारत की इस आईटी यात्रा की शुरूआत हुई चार-पाँच दशक पहले. ऐसे समय, जब भारत में योग्य इंजीनियर तो बन गए मगर उनकी योग्यता को परखने या उनके निखरने के लिए तब देश में कोई अवसर नहीं थे.

ऐसे में भारतीय इंजीनियरों ने विदेशों की ओर क़दम बढ़ाए, ख़ासतौर पर अमरीका में जहाँ योग्यता की परख भी होती थी, निखरने का मौक़ा भी मिलता था.



आहिस्ता-आहिस्ता भारतीय इंजीनियरों ने वहाँ अपनी योग्यता और परिश्रम से स्थान बनाना शुरू किया और धीरे-धीरे वे स्थापित होने लगे.

अमरीका में एक सॉफ़्टवेयर डेवलपर के तौर पर शुरूआत करने के बाद दो टेक्नोलॉजी कंपनियाँ शुरू करनेवाले, ड्यूक विश्वविद्यालय के इंजीनियरिंग विभाग में प्राध्यापक प्रोफ़ेसर विवेक वधवा बताते हैं कि भारतीयों ने एक-दूसरे की सहायता के साथ-साथ नेटवर्क बनाना शुरू किया और फिर वो आगे निकलते चले गए.

विवेक वधवा कहते हैं,"डॉटकॉम क्रांति के समय सिलिकन वैली में 16 प्रतिशत नई कंपनियाँ भारतीयों ने खोली जो बहुत बड़ी बात है क्योंकि आबादी के हिसाब से भारतीय लोग अमरीकी आबादी का केवल एक प्रतिशत हिस्सा थे."

भारतीय पेशेवर इंजीनियरों ने आहिस्ता-आहिस्ता अमरीका में जड़ें जमा लीं, फिर समय के साथ-साथ तकनीकें बदली, सोच बदली समीकरण बदले.

अमरीका गए भारतीय पेशेवरों का आत्मविश्वास बढ़ा, वो लोग जो नौकरियाँ करने गए थे, अब दूसरों को नौकरियाँ देने और दिलाने की भूमिका में उतर आए, ऐसे में उन्हें याद आईं - अपनी पुरानी जड़ें.


जड़ से जुड़ाव


वे इंजीनियर जो अमरीका में पाँव जमा चुके थे और जिनका भारत से नाता बना हुआ था उन्होंने पाया कि एक ओर जहाँ भारत में योग्य इंजीनियरों के लिए रास्ते सीमित हैं, वहीं अमरीका में काम का अंबार लगा है, और लोग नहीं हैं.

पिछले दो दशक से सिलिकन वैली में काम कर रहे आईआईटी कानपुर के पूर्व छात्र मनीष चंद्रा कहते हैं,"80 के दशक के अंत तक ऐसे भारतीय इंजीनियर जो अमरीका में जम चुके थे उन्होंने भारत के ऐसे इंजीनियरों के बारे में सोचना किया जिनके लिए भारत में नौकरियाँ नहीं थीं."

मनीष बताते हैं कि भारतीय पेशेवरों के अमरीका में दबदबा बनने की शुरूआत इसतरह से हुई कि पहले-पहले भारतीय इंजीनियरों ने अस्थायी वीज़ा पर अमरीका जाकर काम करना शुरू किया.




अस्सी-नब्बे के दशक का ये वो समय था जब दुनिया तेज़ी से बदल रही थी और जैसे-जैसे वर्ष 2000 क़रीब आया, वाईटूके नामक एक घटना ने आईटी क्षेत्र में अचानक ज़बरदस्त अवसर पैदा कर दिए.

मनीष कहते हैं,"80 के दशक से 2000 तक तकनीक काफ़ी बदली और भारतीय उसका हिस्सा थे..ऐसे में वाई-टू-के घटना के समय जब वर्ष 2000 में ये हुआ कि सारे कंप्यूटर बदले जाएँगे तो आईटी का काम अचानक बढ़ गया."


इंग्लिश-क्वालिटि-क्वांटिटि



मगर सवाल ये उठता है कि ऐसे समय में जब तकनीक की दुनिया बदल रही थी तो बाकी देश क्यों पीछे रह गए और भारत क्यों आगे निकल गया?

आईआईटी कानपुर के पूर्व प्राध्यापक और वर्तमान में बंगलौर स्थित इंटरनेशनल इंस्टीच्युट ऑफ़ इन्फ़ॉर्मेशन टेक्नोलॉजी के निदेशक प्रोफ़ेसर एस सदगोपन इसके तीन कारण गिनाते हैं – और इसका नाम उन्होंने दिया है – 'इक्यूक्यू एडवांटेज' यानी इंग्लिश क्वालिटि क्वांटिटि.



प्रोफ़ेसर सदगोपन कहते हैं,”आज भारत हर साल साढ़े पाँच लाख इंजीनियर बना रहा है, दुनिया में और कहीं इतनी बड़ी संख्या में इंजीनियर नहीं बनते, फिर भारत में अंग्रेज़ी का भी अच्छा-ख़ासा चलन है – तो क्वालिटि-क्वांटिटि और इंग्लिश – तीनों मिलकर भारत को लाभ पहुँचा रहे हैं“.

प्रोफ़ेसर सदगोपन के अनुसार इ-क्यू-क्यू ऐडवांटेज के कारण ही भारत दूसरे देशों जैसे चीन, फ़िलीपींस, आयरलैंड और इसराइल जैसे देशों से आगे निकल जाता है.

प्रोफ़ेसर सदगोपन कहते हैं,"चीन क्वांटिटि और क्वालिटि के मामले में भारत से बेहतर है मगर उनकी समस्या अभी तक अंग्रेज़ी की है; फ़िलीपींस क्वालिटि में पिछड़ता है और आयरलैंड-इसराइल क्वांटिटि में भारत की बराबरी नहीं कर पाते".


आउटसोर्सिंग का फ़ायदा




भारत के आईटी क्षेत्र की एक अलग पहचान ये रही है कि आउटसोर्सिंग ने उसे विश्व में एक अलग स्थान दिलाया है. आउटसोर्सिंग - यानी दूसरे देशों के काम को ऐसे देशों में करवाना जहाँ लागत कम हो - भारत इसका आदर्श केंद्र बना.

आईआईटी दिल्ली में प्राध्यापक रहे और वर्तमान में दिल्ली स्थित इंद्रप्र्स्थ इंस्टिच्यूट ऑफ़ इन्फ़ॉर्मेशन टेक्नोलॉजी के निदेशक प्रोफ़ेसर पंकज जलोटे कहते हैं कि भारत को पहल करने का लाभ हुआ.

प्रोफ़ेसर जलोटे कहते हैं,"25 साल पहले भारत में जब आउटसोर्सिंग शुरू हुई तो तब किसी और देश की निगाह इसपर नहीं थी, तो भारत को पहल करने का निश्चित रूप से फ़ायदा हुआ."

प्रोफ़ेसर जलोटे के अनुसार बाद के वर्षों जब टेलीकॉम की सुविधा सस्ती हुई तो आउटसोर्सिंग का काम और आसान हो गया और भारत आगे निकलता चला गया.

मिला-जुलाकर आईटी क्षेत्र में पूरे विश्वपटल पर दबदबा रखनेवाली भारत की प्रतिष्ठा का श्रेय निश्चित रूप से उन पेशेवर इंजीनियरों को जाता है जिन्होंने अपने पुरूषार्थ और परिश्रम के बल-बूते सात समुंदर पार जाकर अवसरों को तलाशा.

आज वही भारतीय दुनिया के लिए अवसर बना रहे हैं.

अब अमेरिका भी देखता रह जाएगा हमारी फौजी ताकत



नई दिल्ली.भारत ने अपना सबसे बड़ा रक्षा करार मंगलवार को रूस के साथ किया। यह 29.50 बिलियन डॉलर यानी लगभग 1350 अरब रुपए का है। समझौता पांचवीं पीढ़ी के आधुनिकतम युद्धक विमान (एफजीएफए) के साझा डिजाइन के लिए हुआ है। इस आरंभिक समझौते के मुताबिक भारत को ऐसे 250 विमानों की आपूर्ति 2018 से शुरू होगी। आवश्यकतानुसार विमानों की संख्या 300 तक बढ़ सकती है।

मंगलवार को आरंभिक करार पर हस्ताक्षर रूसी कंपनी रोसनबरो एक्सपोर्ट के ए इसायकिन व एचएएल के चेयरमैन अशोक नायक ने किए। लगभग डेढ़ साल में डिजाइन को अंतिम रूप दिया जाएगा। तब विमान के विकास एवं उत्पादन के लिए अंतिम समझौते पर हस्ताक्षर होंगे।

खूबियां व विशेषताएं

यह अपनी श्रेणी के अमेरिकी एफ-32 राप्टर व निर्माणाधीन एफ-35 लाइटनिंग-2 को टक्कर देने वाला है। यह राडार की पकड़ से बाहर (स्टील्थ तकनीक से लैस) रहने में सक्षम होगा। यह सुपरसोनिक गति, जबरदस्त घात क्षमता से भी लैस होगा। मिसाइलों के जरिए हवा से हवा, हवा से धरती व हवा से पोत पर मार करने में सक्षम होगा।

विशेष टू-सीटर संस्करण:

भारतीय वायु सेना के लिए विशेष रूप से विमान का दो सीटों वाला संस्करण भी तैयार किया जाएगा। रूसी वायु सेना केवल एक सीट वाले विमान का प्रयोग करेगी।

साझा विकास व उत्पादन करार के चलते दोनों देशों की सहमति से अपनी जरूरतें पूरी होने के बाद इसकी बिक्री अन्य मित्र देशों को भी की जा सकेगी। यह इस साझा परियोजना का पहला समझौता है। समय के साथ-साथ करारों की नई श्रृंखला भी जारी रहेगी।

हमारे 70 फीसदी रक्षा उपकरण रूसी:

भारत व रूस के सामरिक संबंध शीतयुद्ध के समय से जारी हैं और भारत के 70 फीसदी रक्षा उपकरण रूसी मूल के हैं। हाल के वर्षो में साजो-सामान व उपकरणों की आपूर्ति में देरी, लागत में वृद्धि, कलपुर्जो व रखरखाव की कमी से दोनों देशों के बीच मतभेद भी हुए हैं। एडमिरल गोर्शकोव की लागत में वृद्धि व देरी के चलते दोनों देशों के संबंधों में कुछ समय के लिए शिथिलता भी रही।

जब-जब यह रहस्यमयी आदमी दिखा, धरती पर आए UFO

http://www.bhaskar.com/article/INT-grinning-man-mystery-1682852.html

द ग्रिनिंगमैन उन रहस्यमयी व्यक्तियों को कहा जाता है, जो 1960 के दशक में मॉथमैन या फिर यूएफओ देखे जाने के दौरान देखे गए थे। बहुत- सी अजीबोगरीब घटनाओं से इन्हें जोड़ा जाता है। कुछ लोगों के अनुसार ये दूसरी दुनिया के थे या फिर मैन इन ब्लैक जैसे थे।

इनके बारे में पैरानॉर्मल राइटर जॉन ए कील और यूएफओलॉजिस्ट जेम्स मोसले जैसे कई लोगों ने रिसर्च की है। ग्रिनिंगमैन देखे जाने की सबसे मशहूर घटना 11 अक्टूबर 1966 की है। अमेरिका के न्यूजर्सी के एलिजाबेथ में दो लड़के जेम्स यैंचिटिस और मार्विन मुनोज फोर्थ स्ट्रीट से पैदल गुजर रहे थे।

एक जगह न्यूजर्सी टर्नपाइक की सीध में बने चौराहे पर वे पहुंचे। टर्नपाइक ऊंचाई पर है और फोर्थ स्ट्रीट तक ढलान वाली सड़क है। दोनों सड़कों के बीच तार की ऊंची फैंसिंग थी। दोनों लड़के फैंसिंग पार करने की कोशिश कर रहे थे।

ऐसे में उनकी नजर एक अजीब से व्यक्ति पर पड़ी। उनका कहना था कि वो वहां कैसे पहुंचा, ये हमें नहीं पता, लेकिन इतना लंबा आदमी हमने पहले नहीं देखा था। मार्विन के पीछे उसे खड़े देखकर जेम्स ने उससे पूछा था, तुम्हारे पीछे कौन खड़ा है।

मार्विन ने मुड़कर देखा तो वह आदमी उन्हें ही देख रहा था। उन दिनों वहां हिंसक घटनाएं हो रही थीं। उस रात उसी सड़क पर एक लंबे हरे रंग के आदमी द्वारा बुजुर्ग का पीछा किए जाने की खबर भी थी।

इसलिए लड़कों ने भागकर पुलिस को इसकी जानकारी दी और पैरानॉर्मल इन्वेस्टिगेटर व यूएफओलॉजिस्ट ने भी उनसे पूछताछ की। उसी रात एक पुलिस अधिकारी व उसकी पत्नी ने वहां यूएफओ भी देखा था। तो क्या वह रहस्यमयी व्यक्ति कोई एलियन था?

मर्दो से ज्यादा ताकतवर होती हैं महिलाएं

http://www.bhaskar.com/article/INT-women-most-powerful-1511411.html?PRV=

लंदन. उम्र के असर से खुद को उबारने में महिलाओं का शरीर मर्दों के मुकाबले ज्यादा ताकतवर होता है। यही वजह है कि महिलाओं का जीवन पुरुषों की तुलना में लंबा होता है। वे शरीर में होने वाली जैविक टूट-फूट को बेहतर ढंग से ठीक कर लेती हैं।

मर्र्दो के लिए यह चौंका देने वाली जानकारी हो सकती है। लेकिन ‘साइंटिफिक अमेरिकन’ जर्नल में प्रकाशित शोध-पत्र से साबित होता है कि जैविक रूप से महिलाओं के मुकाबले मर्र्दो पर उम्र का असर ज्यादा पड़ता है। न्यूकैसल यूनिवर्सिटी के टॉम किर्कवुड ने पाया कि उम्र का असर जीन के हिसाब से तय होता है। वे शरीर की कोशिकाओं में होने वाली टूट-फूट की मरम्मत करती हैं।

पहले से तय नहीं होता बुढ़ापा: किर्कवुड की थ्योरी के मुताबिक बुढ़ापा पहले से तय नहीं होता है। यह उन जीनों से तय होता है, जिनके जिम्मे शरीर को दुरुस्त रखना होता है। इन जीनों को बेहतर भी बनाया जा सकता है।

कम हो रहा उम्र का फर्क

मर्र्दो और महिलाओं की औसत उम्र का फर्क अब 4.2 साल रह गया है। यह 27 वर्ष पहले छह साल था। आज जन्मे लड़के की औसत उम्र 77.7 साल है, जबकि लड़की की 81.9 साल है।

इसके पीछे तर्क दिया जाता रहा है कि मर्र्दो में दिल की बीमारी ज्यादा होती है, जबकि महिलाओं में ओस्ट्रोजन उन्हें दिल की बीमारी से बचाता है। यह तर्क भी किर्कवुड की थ्योरी को मजबूती देता है। वे कहते हैं कि टूट-फूट रोकने वाली जीन ही उम्र तय करती हैं।

'कब्रों' की रखवाली करता है यह तिलिस्मी मानव

http://www.bhaskar.com/article/INT-draugar-the-worlds-most-mysterious-case-1699718.html

नॉर्स सभ्यता की पुरानी कथाओं में एक विचित्र जीव ड्राउगर के बारे में पढ़ने को मिलता है। नॉर्स भाषा में ड्राउगर का मतलब भूत होता है। कहते हैं कि ये वाइकिंग्स की कब्रों में रहा करते थे। इतना ही नहीं कई बार ये मरे हुए लोगों का शरीर भी धारण कर लेते थे। उस जमाने में अमीर लोगों की कब्रों में बहुत-सी दौलत भी हुआ करती थी। ड्राउगर उसकी रखवाली करते थे।

कहते हैं कि इनमें अनोखी शक्ति हुआ करती थी। वे अपना साइज भी बढ़ा सकते थे और उनका शरीर सड़ता भी नहीं था। फिर भी उसमें से सड़े हुए शरीर की बदबू आती थी। वे लोग अपने शरीर को धुएं में भी बदल लेते थे। इसी तरह वे चट्टानों जैसे सॉलिड मटेरियल में से भी तैरकर पार हो जाते थे।

उन्हें उनकी आंखों से पहचाना जा सकता था। उनकी आंखों में भी गजब की शक्ति हुआ करती थी। इसके अलावा उनकी और भी कई शक्तियों के बारे में लिखा गया है लेकिन ड्राउगर का जन्म कैसे होता था, ये कहीं भी साफ नहीं होता है। नॉर्स सभ्यता के अनुसार पापी जीवन इसका कारण होता था।

जैसे की दूसरे भूत-प्रेतों के बारे में कहा जाता है कि वे लोहे से डरते हैं। वैसा ही ड्राउगर्स के बारे में मशहूर है। हरोमुंदर सागा ग्रिपसोनार में भी ऐसा लिखा गया है। नॉर्वे में भी इनके बारे में कई किस्से मशहूर हैं। इनसे बचने के कई तरीके भी वहां प्रचलित हैं। बहुत से लोग इन कहानियों पर यकीन करते हैं। फिर भी आज तक किसी भी किस्से को साबित नहीं किया जा सका है। इस तरह ड्राउगर्स पश्चिमी देशों के लिए एक राज ही है।

राज है गहरा

भूत-प्रेत जैसी एक चीज है ड्राउगर। कई देशों में इनके किस्से सदियों से मशहूर हैं लेकिन कोई भी मामला साबित नहीं किया जा सका है।

मशहूर होने के लिए अपनाएं ये दो तरीके

http://religion.bhaskar.com/article/dharm-mashhoor-1699941.html

स्मार्ट और फिट बनाए रखता है यह हनुमान मंत्र

http://religion.bhaskar.com/article/ups-smartfit-1699797.html

ऐसा होता है मौन का जादू

http://religion.bhaskar.com/article/jigyasa-this-is-the-magic-of-silence-1702954.html

क्‍यों करते हैं नमक पानी से गारगल

http://www.bhaskar.com/article/LIF-why-do-we-gargel-with-saulty-water-1699968.html#fragment-2